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तृषा ने अपना सर पकड़ते हुए कहा- आज तो तुम कूद ही जाओ.. मैं भी देखूँ आखिर कैसे एडजस्ट होते हो तुम उसमें। मैं हंसने लग गया.. मैंने वाल-डांस की धुन बजाई और तृषा को बांहों में ले स्टेप्स मिलाने लगा।
यह डांस तृषा ने ही मुझे सिखाया था, एक-दूसरे की बांहों में बाँहें डाले.. आँखें बस एक-दूसरे को ही देखती हुई। मैं धीरे से उसके कानों के पास गया और उससे कहा- सच में चली जाओगी मुझे छोड़ के?
तृषा ने मुझे कस कर पकड़ते हुए कहा- नहीं.. बस झूटमूट का.. मैं तो हमेशा तुम्हारे पास ही रहूँगी। जब कभी अकेला लगे.. अपनी आँखें बंद करना और मुझे याद करना। अगर तुम्हें गुदगुदी हुई तो समझ लेना मैं तुम्हारे साथ हूँ।
वो फिर से मुझे गुदगुदी करने लग गई और मैं उससे बचता हुआ कमरे में एक जगह से दूसरी जगह भागने लग गया। आखिर में हम दोनों थक कर बैठ गए। मेरे जन्मदिन वाले दिन को जो हुआ था.. उसके बाद शायद ही कभी हंसे थे हम दोनों.. उस दिन को हमने जी भर के जिया।
मैं एक बार तो भूल गया था कि उसकी शादी किसी और से हो रही है। शायद मैं आज याद भी नहीं करना चाहता था इस बात को…
रात हो चुकी थी.. उस रात का खाना हम दोनों ने मिल कर बनाया था। वो सोफे पर बैठ गई.. मैंने उसकी गोद में सर रखा और फर्श पर बैठ गया। तृषा मुझे खिलाने लग गई। मैं तो बस उसे देखता ही जा रहा था, पता नहीं फिर कब उसे जी भर कर देखने का मौका मिले।
हमारा खाना-पीना हो चुका था और मम्मी का कॉल भी आ चुका था तो अब जाने का वक़्त हो चुका था। तृषा की आँखें भी नम हुई जा रही थीं.. वो कुछ कहना चाह रही थी.. पर बात उसके गले से बाहर नहीं आ पा रही थी। ना मुझमें अब कुछ बोलने की हिम्मत बची थी।
मैं दरवाज़े की ओर मुड़ा और दरवाज़ा खोल ही रहा था कि तृषा का मोबाइल बज उठा।
कॉलर ट्यून थी ‘लग जा गले.. कि फिर हसीं रात हो ना हो… शायद इस जन्म में मुलाक़ात हो ना हो..’
मैं पलटा और तृषा को जोर से बांहों में भर लिया, हम दोनों रोए जा रहे थे। थोड़ी देर ऐसे ही रुक मैंने खुद को उससे अलग किया और दरवाज़े से बाहर आ गया।
मेरे सीने में आग लगी हुई थी, मैं जोर जोर से चिल्लाना चाह रहा था।
मैं थोड़ी देर अकेला रहना चाहता था पर कहते हैं न- ‘बड़ी तरक्की हुई है इस देश की मेरे दोस्त… तसल्ली से रोने की जगह भी नहीं है यहाँ तो..’
सारे दर्द को यूँ ही सीने में दबाए.. मैं अपने कमरे में आ गया। अब मुझमें कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं बची थी.. मैं सोने चला गया।
उस दिन को बीते लगभग एक हफ्ता हो गया था। यूँ तो हर रोज़ हम किसी न किसी बहाने से मिल ही लेते थे.. पर आज शाम से तृषा का कोई पता ही नहीं था, उसके घर में भी कोई नहीं था, मैंने अपना सेल फ़ोन निकाला और तृषा को मैसेज किया।
‘कहाँ हो? मैं छत पर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।’
तृषा का ज़वाब थोड़ी देर में आया- मैं पटना में हूँ.. कल मिलती हूँ।
आखिर वो पटना में क्या कर रही है..? यह सवाल मुझे परेशान किए जा रहा था। मैं नीचे गया, मम्मी नूडल्स बना रही थीं।
मैं- मम्मी.. वो तृषा के घर पर कोई नहीं है। सब कहीं गए हैं क्या?
मम्मी- तृषा ने तुम्हें नहीं बताया है क्या?
मैं- कौन सी बात.?
मम्मी- आज तृषा की सगाई है। लड़के वाले पटना के हैं.. सो वहीं किसी होटल से हो रही है।
मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आपको संभाला। जब से तृषा की शादी की बात हुई थी.. मुझे लगा था कि मैं तृषा और उसके परिवार वालों को मना लूँगा। तृषा की प्यार भरी बातें उसका मेरे करीब आना.. यूँ मुझ पर अपना हक़ जताना। अब तो जैसे सब बेमतलब सा लग रहा था।
उसे जब यही करना था.. तो मुझे उसने ये एहसास क्यूँ दिलाया कि सब ठीक हो जाएगा। क्यूँ उसने मुझे खुद से दूर जाने ही नहीं दिया। क्या प्यार बस खेल है उसके लिए..
सुना था कि दिलों से खेलना भी शौक होता है.. पर जान लेने का यह तरीका कुछ नया था मेरे लिए..
आज मैं एक बात तय कर चुका था.. उसकी हर याद को मिटाने की.. मैंने शुरुआत उसकी तस्वीरों से की.. छत पर गया और मैंने उसकी तस्वीरों को उसी के घर की छत पर रख कर आग लगा दी। हर जलती तस्वीर और मेरे आंसुओं की हर बूँद के साथ उसकी हर याद को मैं खुद से अलग कर देना चाहता था। पर मैं इस प्यार का क्या करता.. जो मेरे दिल की हर धड़कन के साथ उसके मेरे पास होने का एहसास कराता जा रहा था।
मैं गुमसुम सा हो गया उस दिन के बाद.. मुझे किसी अजनबी के पास जाने से भी डर सा लगने लगा था.. अब तो अपनी धड़कन भी पराई सी लगती थी। मैं अब ना तो कहीं जाता और ना ही किसी से बात करता। माँ ने बहुत बार मुझसे वजह जानने की कोशिश की.. पर मैं उन्हें क्या बताता कि उनके बेटे को उसके अपने दिल का धड़कना गंवारा नहीं..
तृषा की शादी की तारीख 15 मई को तय हुई थी। मैं बस इस सैलाब के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था। जैसे-जैसे दिन करीब आ रहे थे.. मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। उसकी शादी में अब दो दिन बचे थे। शादी के गीतों का शोर अब मेरे बंद कमरे के अन्दर भी सुनाई देने लगा था।
मैं पापा के कमरे में गया और वहाँ उनकी आधी खाली शराब की बोतल ले छत पर आ गया। रात के 8:30 बजे थे.. मैंने अपनी छत के दरवाज़े को बंद किया और किनारे की दीवार के सहारे जमीन पर बैठ गया। जब-जब शराब की हर घूंट जब मेरे सीने को जलाती हुई अन्दर जाती.. तब-तब ऐसा लगता.. मेरे जलते हुए दिल पर किसी ने मरहम लगाया हो।
मेरी आँखें अब बंद थीं.. अब तो मैं यह मान चुका था कि मैंने किसी बेवफा से मोहब्बत की थी। तभी ऐसा लगा मानो कोई मेरी शराब की बोतल को मुझसे दूर कर रहा हो। मैंने अपनी आँखें खोलीं… सामने तृषा थी। मैं डर गया और लगभग रेंगता हुआ उससे दूर जाने लगा।
‘ज..जाओ यहाँ से..’ मैं लगभग चिल्लाते हुए बोला। मेरी दिल की धड़कन बहुत तेज़ हो चुकी थी.. मेरा पूरा शरीर कांप रहा था।
तृषा- क्यूँ जाऊँ मैं.. तुम ऐसे ही घुट-घुट कर मरते रहो और मैं तुम्हें ऐसे ही मरते हुए देखती रहूँ..
मैं- जान भी लेती हो और कहती हो.. तुम्हारा तड़पना मुझे पसंद नहीं.. जाओ शादी करो और अपनी जिंदगी में खुश रहो। अब तो तुम्हारी हमदर्दी भी फरेब लगती है मुझे..
तृषा ने मेरे पास आते हुए कहा- मत करो मुझसे इतना प्यार.. मैं लायक नहीं तुम्हारे प्यार के.. मैं- दूर रहो मुझसे.. और किसने कहा कि तुमसे प्यार करता हूँ मैं..
उँगलियों से उसे दिखाते हुए मैंने कहा- मैं इत्तू सा भी प्यार नहीं करता.. तुम्हें.. तृषा मेरे गले से लग गई- पता है मुझे.. मैं- अब क्या बचा है.. जो लेने आई हो।
तृषा ने मेरी बोतल से एक घूंट लगाते हुए कहा- कुछ नहीं.. बस अपनी जिंदगी के कुछ बचे हुए पलों को तुम्हारे साथ जीने आई हूँ। मैं- तुम्हें कुछ महसूस नहीं होता क्या..? जब चाहो दिल में बसा लिया.. जब जी चाहा.. दिल से दूर कर लिया। तृषा- होता है न.. पर दिल से दूर करूँगी तब न.. तुम तो हमेशा से मेरे दिल में हो.. तो मुझे क्यूँ दर्द होगा।
मैंने उसकी सगाई की अंगूठी देखते हुए कहा- किसी और के नाम की अंगूठी पहनते हुए भी कुछ महसूस नहीं हुआ क्या?
तृषा- जब पापा मेरे लिए प्यार से कुछ कपड़े लाते थे.. तो उसे पहन कर बहुत खुश होती थी मैं.. घर में सबको डांस कर-कर के दिखाती थी कभी.. आज मेरी इस अंगूठी के पहनने से उन्हें ख़ुशी मिल रही है.. तो मैं उनके लिए इतना भी नहीं कर सकती? जिन्होंने दिन-रात मेहनत की और मेरी हर कामना को पूरा किया.. आज मैं उन्हें थोड़ी सी भी ख़ुशी दे सकूँ.. तो ये मेरे लिए खुशनसीबी होगी।
मैं- अपने मम्मी-पापा की ख़ुशी का ख्याल है तुम्हें और मैं..? जब से तुम्हें जाना है.. तुम्हारे लिए ही जिया है मैंने..। जब से तुमसे प्यार हुआ है तब से तुम्हारे हर दर्द को बराबर महसूस किया है मैंने..। तुम्हारे लबों पर एक मुस्कान के लिए.. तुम्हारी हर ख्वाहिश को पूरा करने की कोशिश की है मैंने.. और मैंने क्या चाहा था तुमसे… तुम्हारा प्यार..। तुमने तो उसे भी किसी और के नाम कर दिया।
तृषा- तुम्हारे इस सवाल का जवाब भी बहुत जल्द दे दूँगी.. पर तुम्हारी ये हालत मैं नहीं देख सकती। अपना हुलिया ठीक करो और याद है न तुमने मुझसे वादा किया था कि मुझे शादी के जोड़े में सबसे पहले तुम ही देखोगे। आओगे न..? मेरी आखिरी ख्वाहिश समझ कर आ जाना।
मैं- काश कि मैं तुम्हें ‘ना’ कह पाता.. हाँ मैं आऊँगा..
तृषा अपने घर चली गई। आज बहुत दिनों के बाद मुझे नींद आई थी। शादी वाला दिन भी आ चुका था। आज एक वादे को निभाना था। अपने लिए ना सही.. पर आज अपने प्यार के लिए मुस्कुराना था मुझे.. सुबह-सुबह मैंने शेविंग कराई.. बाल ठीक किए और तृषा की गिफ्टेड शर्ट और पैंट को ठीक किया।
शाम तक मैंने अपने आपको घर में ही व्यस्त रखा। अपने चेहरे से मुस्कान को एक बार भी खोने ना दिया। कभी आँखों में आंसू आए.. तो कुछ पड़ने का बहाना बना देता।
कहानी पर आप सभी के विचार आमंत्रित हैं। कहानी जारी है। [email protected]om
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