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प्रेषिका : स्लिमसीमा
हम बिना कुछ कहे या बोले कोई 5-7 मिनट इसी तरह पड़े रहे। यही तो प्रेम की अंतिम अभिव्यक्ति है। जब प्रेम करने वाले दो शरीर अपना सब कुछ कामदेव को समर्पित करके एक दूसरे में समां जाते हैं तब शब्द मौन हो जाते हैं और प्रेम की परिभाषा समाप्त हो जाती है। फिर भला कुछ कहने की आवश्यकता कहाँ रह जाती है।
अब उनका ‘वो’ फिसल कर बाहर आ गया तो वो मेरे ऊपर से हट गए। मुझे लगा मेरी लाडो से कुछ गर्म गर्म सा रस बह कर बाहर आने लगा है। मैंने जैसे ही उठने को हुई प्रेम ने मुझे रोक दिया।
‘मधुर प्लीज… एक मिनट!’
पता नहीं अब वो क्या चाहते थे। उन्होंने तकिये के नीचे से एक लाल रंग का कपड़ा सा निकला। ओह यह तो कोई रुमाल सा लग रहा था। उन्होंने उस लाल रुमाल को प्रेम रस में भीगी मेरी लाडो की दरार पर लगा दिया। लगता था पूरा रुमाल ही लाडो से निकलते खून और प्रेम रस के मिलेजुले हलके गुलाबी से मिश्रण से भीग गया था।
मैं तो उस समय कुछ महसूस करने की स्थिति में ही नहीं थी। प्रथम मिलन के इस साक्ष्य को उन्होंने अपने होंठों से लगा कर चूम लिया। मैं तो एक बार फिर शर्मा गई।
‘मधुर! आपका बहुत बहुत धन्यवाद!’
मैं कुछ समझी नहीं। यह धन्यवाद इस प्रेमरस के लिए था या मेरे समर्पण के लिए। मुझे अभी भी कुछ गीला गीला सा लग रहा था और थोड़ा सा रस अभी भी लाडो से निकल रहा था।
‘मधुर आओ बाथरूम में साथ साथ ही चलते हैं!’ उन्होंने कुछ शरारती अंदाज़ में मेरी ओर देखते हुए कहा।
‘नहीं पहले आप हो आओ, मैं बाद में जाऊँगी।’ मैं बाथरूम में जाना चाहती थी पर मेरे सारे कपड़े तो नीचे गिरे थे। मुझे निर्वस्त्र होकर बाथरूम जाने में कुछ लाज भी आ रही थी और संकोच भी हो रहा था।
‘ओह… चलो कोई बात नहीं!’
प्रेम अपनी कमर पर तौलिया लपेट कर बाथरूम में चले गए। अब मैं उठ बैठी। मैंने अपनी लाडो की ओर देखा। उसकी पंखुड़ियाँ थोड़ी मोटी मोटी और सूजी हुई सी लग रही थी। झिर्री थोड़ी खुली सी भी लग रही थी। मैंने थोड़ा सा हट कर अपनी जाँघों और नितम्बों के नीचे देखा पूरी चादर कोई 5-6 इंच के व्यास में गीली हो गई थी। मैंने झट से उसपर एक तकिया रख दिया।
अब मुझे अपने कपड़ों का ध्यान आया। जैसे ही मैं उठाने को हुई प्रेम बाथरूम का दरवाजा खोल कर कमरे में आ गया था। मुझे कुछ सूझा ही नहीं मैंने दूसरा तकिया उठा कर उसे अपनी छाती से चिपका लिया ताकि मैं अपने निर्वस्त्र शरीर को कुछ तो छुपा सकूं।
प्रेम मेरे पास आ गया और फिर मेरी गोद में अपना सर रख कर लेट गया। अब भला मैं बाथरूम कैसे जा पाती। ‘मधुर!’
‘हुं…?’
‘तुम बहुत खूबसूरत हो… मेरी कल्पना से भी अधिक!’
मेरे मन में तो आया कह दूं ‘हटो परे झूठे कहीं के?’ पर मैं कुछ बोल ही नहीं पाई।
‘मधुर आज तुमने मुझे अपना कौमार्य सौंप कर उपकृत ही कर दिया… मेरी प्रियतमा!’ कह कर उन्होंने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दी।
‘हाँ, मेरे प्रेम! मैं भी आपको पाकर पूर्ण स्त्री बन गई हूँ।’
उन्होंने मेरे सर को थोड़ा सा नीचे करने की कोशिश की तो मैंने मुंडी थोड़ी सी नीचे कर दी। उन्होंने मेरे होंठों को एक बार फिर से चूम लिया। मेरे खुले बाल उनके चहरे पर आ गिरे।
हम दोनों के बीच तकिया दीवार सा बना था। उन्होंने झट से उसे खींचा और पलंग से नीचे फेंक दिया। मेरे अनावृत वक्ष उनके मुँह से जा लगे। प्रेम ने एक उरोज को अपने मुँह में भर लिया और चूसने लगे।
मैं भला उन्हें मना कैसे कर पाती। अब मेरा ध्यान उनके पैरों की ओर गया। तौलिया थोड़ा सा उनकी जाँघों से हट गया था। अब मुझे उनका’वो’ नज़र आया। अब तो वो केवल 3-4 इंच का ही रह गया था… बिल्कुल सिकुड़ा हुआ सा जैसे कोई शरारती बच्चा खूब ऊधम मचाने के बाद अबोध (मासूम) बना चुपचाप सो रहो हो। मेरा मन कर रहा था इसे एक बार हाथ में पकड़ लूं या चूम लूँ।
सच कहूँ तो मैंने कभी किसी का लिंग अपने मुँह में लेना और चूसना तो दूर की बात है कभी ठीक से देखा भी नहीं था। पर सहेलियों से सुना बहुत था कि लिंग ऐसा होता है वैसा होता है। मेरी लाडो तो उसकी कल्पना मात्र से ही गीली हो जाया करती थी और फिर मैं आँखें बंद करके अपनी देह में उठती मीठी सी गुदगुदी का आनंद लिया करती थी।
मीनल तो कहती है कि ‘इसे मुँह में लेकर चूसने में बहुत आनंद आता है और इसके रस को पीने में बहुत मज़ा आता है। पुरुष स्त्री से तभी प्रेम करता है जब वो उसकी हर चीज को अपना बना ले और अपनी हर चीज उसे सोंप दे। अगर तुम उसके अमृत को पी लोगी तो वो तुम्हारा दीवाना ही बन जाएगा।’
‘छी… गन्दी कहीं की!’ मैं ख्यालों में खोई थी कि ना जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया था।
‘क्या हुआ? मधुर?’ प्रेम मेरे उरोजों को चूसने में मग्न था। मेरी आवाज सुन कर चौंका।
‘ओह… कुछ नहीं वो…. वो…’ अब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, मैंने बात संवारते हुए कहा,’वो… मैं कह रही थी आप पहले दूध पी लो!’
‘दूध ही तो पी रहा हूँ!’
‘ओह… हटो परे… मैं इस दूध की नहीं वो थर्मस वाले दूध की बात कर रही थी।’
‘ओह… पर मुझे तो यही दूध पसंद है…!’ उसने अपनी शरारती आँखें नचाई। ‘प्लीज…’ ‘ठीक है जी!’ कह कर प्रेम उठ खड़ा हुआ।
उसने पलंग के पास पड़ी मेज पर रखे नाईट लैम्प को फिर से जला दिया। कमरा हलकी रोशनी से जगमगा उठा। मैंने झट से पास पड़ी चादर से अपने आप को ढक लिया। प्रेम ने थर्मस में रखे दूध को एक गिलास में डाल लिया और तश्तरी से बर्फी का एक टुकड़ा उठा कर मेरी ओर आ गया। फिर बर्फी का टुकड़ा मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला,’मधुर, आप इस बर्फी के टुकड़े को आधा मुँह में रख लें!’ ‘क्यों?’ ‘ओह.… क्या सारा ही खा जाना चाहती हैं?’ वो हंस पड़े।
मेरी भी हंसी निकल गई। मैंने उनके कहे अनुसार बर्फी को अपने दांतों में पकड़ लिया। अब प्रेम ने बाहर बचे उस आधे टुकड़े को अपने मुँह में भर लिया।
प्रेम के इस अनोखे प्रेम को देख कर मैं तो मर ही मिटी। मैंने मुस्कुरा कर उनकी ओर देखा। अब वो इतने भोले तो नहीं होंगे कि मेरी आँखों में झलकते हुए प्रेम को ना पढ़ पायें।
फिर उन्होंने दूध का गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया। ‘ओह.. पर दूध तो आपके लिए है?’ ‘नहीं मेरी प्रियतमा… हम दोनों इसे पियेंगे… पर वो मीनल बता रही थी कि उसने चीनी नहीं डाली है!’ ‘क्यों?’ ‘पता नहीं!’ ‘तो?’
‘ओह कोई बात नहीं… तुम इसे पहले अपने इन मधु भरे अधरों से छू लो तो सारी मिठास इस दूध भरे गिलास में उतर आयेगी!’ वो मंद मंद मुस्कुराने लगे थे।
ओह… अब मुझे उनकी शरारत समझ आई। उन्होंने गिलास मेरे होंठों से लगा दिया। मैं कैसे ना कर सकती थी। मैंने एक घूँट ले लिया। अब उन्होंने ठीक उसी जगह अपने होंठ लगाए जंहा मेरे होंठ लगे थे।
दूध का गिलास उन्होंने मेज पर रख दिया और फिर से मुझे बाहों में भरने की कोशिश करने लगे।
‘ओह… प्रेम प्लीज… छोड़ो ना… मुझे बाथरूम जाने दो ना प्लीज…!’ ‘मधुर तुम बहुत खूबसूरत हो! प्लीज, अपनी बाहों से मुझे दूर मत करो!’ कह कर उन्होंने तड़ातड़ कई चुम्बन मेरे होंठों और गालों पर ले लिए।
‘ओह… प्लीज रुको… प्लीज…वो… लाइट… ओह…?’
पर वो कहाँ मानने वाले थे। मैं तो कसमसा कर ही रह गई। वो मेरे पीछे आ गए और आपाधापी में चादर नीचे गिर गई। मैं अपनी लाज छुपाने पेट के बल होकर पलंग पर गिर पड़ी। मेरा पेट उस तकिये पर आ गया जो मैंने उस गीली जगह को छुपाने के लिए रखा था। इससे मेरे नितम्ब कुछ ऊपर की ओर उठ से गए।
अब वो मेरे ऊपर आ कर लेट गए। उनकी दोनों जांघें मेरे नितम्बों के दोनों ओर आ गई और उनकी छाती मेरी पीठ से चिपक गई। अब उन्होंने अपने हाथों को नीचे करते हुए मेरे अमृत कलशों को पकड़ लिया। उनका मुँह मेरे कानो में पहनी बालियों के पास आ गया। उन्होंने कान की बाली सहित मेरी परलिका (कान के नीचे का भाग) अपने मुँह में भर लिया और उसे चूमने लगे। उनकी गर्म साँसें मुझे अपने गालों पर महसूस हो रही थी। पता नहीं इनको कान और उसमें पहनी बालियों को चूसने में क्या आनंद आ रहा था। मीनल ने मुझे कहा था कि मैं मधुर मिलन की रात को कानों में झुमकों से स्थान पर छोटी छोटी बालियाँ ही पहनू क्यों कि प्रेम को ऐसी बालियाँ बहुत पसंद हैं।
ओह… उनका ‘वो’ अब अपनी मासूमियत छोड़ कर फिर शरारती बन गया था। मेरे कसे नितम्बों के बीच उसकी उपस्थिति का भान होते ही मेरी सारी देह एक बार फिर से झनझना उठी। वो कभी मेरे गालों को कभी कानो को चूमते रहे। हाथों से मेरे अमृत कलशों को कभी दबाते कभी उनके चुचूकों को अपनी चिमटी में लेकर मसलते तो मेरी मीठी सीत्कार ही निकल जाती। उनका ‘वो’ तो मेरे नितम्बों की गहरी खाई में टक्कर ही मारने लगा था। मैंने अपनी जांघें कस कर भींच लीं।
मीनल कई बार कहती थी ‘देखना मधुर, तुम्हारे नितम्ब देख कर तो वो मतवाला ही हो जाएगा। सच कहती हूँ अगर मैं लड़का होती और तुम्हारे साथ सुहागरात मनाती तो सबसे पहले तो तुम्हारी गांड ही मारती! भैया को मोटे और कसे हुए नितम्ब बहुत पसंद हैं! पता नहीं तुम उनसे कैसे बचोगी?’
हे भगवान्… कहीं प्रेम कुछ उल्टा सीधा करने के चक्कर में तो नहीं है? मैं तो सोच कर ही कांप उठी। मैं प्रेम की पूर्ण समर्पित तो बनना चाहती थी पर कम से कम आज की रात तो ऐसा बिल्कुल नहीं करने देना चाहती थी।
‘इईईईईई…’ ‘क्या हुआ?’ ‘ओह… प्रेम ऐसे नहीं? ओह… हटो प्लीज… मुझे सीधा होने दो।’ ‘ओह…’ कहते हुए वो हट गया।
मैं झट से सीधी हो गई और इस से पहले कि वो कुछ करे मैंने उन्हें अपनी बाहों में भर लिया। वो झट से मेरे ऊपर आ गए और एक बार फिर से हम उसी नैसर्गिक आनन्द में डूब गए। ‘मधुर… मेरी प्रियतमा! मैं जीवन भर तुम्हें इसी तरह प्रेम करता रहूँगा…!’ उन्होंने मेरे अधरों को चूमते हुए कहा। ‘मैं जानती हूँ मेरे प्रियतम… मेरे साजन!’ मैंने एक बार उन्हें फिर से अपनी बाहों में भींच लिया।
बाहर रोशनदान से कृष्णपक्ष की द्वितीया का चाँद अपनी मधुर चाँदनी बरसा रहा था। यह भी तो हमारे इस मधुर मिलन का साक्षी ही तो बना था।
पता नहीं कब हम दोनों की आँख लग गई। कोई 7.30 बजे मेरी आँख खुली। मैं अपने कपड़े लेकर बाथरूम में भागी। मेरी दोनों जाँघों के बीच मीठी कसक और चुभन सी अनुभव हो रही थी और मेरा अंग अंग जैसे किसी अनोखे उन्माद में डूबा था।
मैंने शीशे में अपने आप को देखा। मेरे गालों, गले, बाहों, छाती, पेट और जाँघों पर तो लाल और नीले निशान से बने थे। मेरे हर अंग पर उनके प्रेम की मोहर लगी थी।
आँखें किसी खुमार में डूबी नशीली सी लग रही थी। यह दो रातों की नींद के कारण नहीं बल्कि प्रेम के नशे के खुमार के कारण था। मेरे प्यासे अधर, धड़कता दिल और लरजती साँसें तो उनकी दासी ही बन गई थी। मेरा अपना अब क्या रह गया था सब कुछ तो उनका हो गया था।
मैंने मुँह-हाथ धोये और कपड़े पहन कर कमरे में आई तो देखा प्रेम अभी भी सोया है। मैं सोच रही थी उन्हें एक चुम्बन लेकर या फिर एक बार इनके सीने से लग कर जगाऊँ। मैंने जैसे ही उनके होंठों को चूमने के लिए सर नीचे किया प्रेम ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया। मैं तो कुनमुनाती ही रह गई।
इतने में बाहर दरवाजा खटखटाने की आवाज आई।
‘मधुर दरवाजा खोलो भाई! 8 बज रहे हैं!’ बाहर से मीनल की आवाज आई।
प्रेम झट से तौलिया उठा कर बाथरूम में भाग गए। मैंने अब पलंग पर बिछी चादर को देखा। वो भी हमारे प्रेम के रस में डूबी थी। पता नहीं मीनल इन गुलाब के मसले गज़रों, फूलों की पत्तियों और इस प्रेम रस से बने चाँद को देखेगी तो क्या क्या सोचेगी और कहेगी। मैंने झट से उस चादर को पलंग से हटाया और उसे अलमारी में संभाल कर रख दिया। मैं भला इस चादर को किसी और को कैसे देखने दूंगी। ना… कभी नहीं… मैं तो इस अनमोल स्मृति को आयु पर्यंत अपने पास संजो कर रखूंगी।
मैं तो अब मधुर माथुर नहीं प्रेम दीवानी बन गई हूँ । इसके अलावा बस और क्या लिखूं :
कलम से भिगो कर प्यार की चाँद बूंदों से बयान की है महसूस करना हो गर तो सेज की उस चादर से पूछो । अपने प्रेम की सिमरन (स्वर्ण नैना)- मधुर
मैंने उस डायरी को बंद कर के एक बार फिर से चूम लिया। मेरे मुस्कुराते होंठों से तो बस यही निकला,’मधुर, तुम बहुत खूबसूरत हो! मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूँ मेरी सिमरन! मेरी स्वर्ण नैना!’ आपको हमारा मधुर प्रेम मिलन कैसा लगा मुझे बताएँगे ना? आपका प्रेम गुरु [email protected] [email protected]
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