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“सुनो भाई, कोई कमरा मिलेगा?” “वो सामने पूछो!”
मैंने उस हवेली को घूम कर देखा और उसकी ओर बढ़ गया. वहाँ एक लड़की सलवार-कुर्ते में अपने गीले बालों बिखेरे हुये शायद तुलसी की पूजा कर रही थी. मुझे देख कर वो ठिठक गई- कूण चावे, कूण हो? “जी, कमरा किराये पर चाहिये था.” “म्हारे पास कोई कमरो नहीं है, आगे जावो.” “जी, थैन्क्स!” “रुको, कांई काम करो हो?” “वो पीछे बड़ा ऑफ़िस है ना, उसी में काम करता हूँ.” “थारी लुगाई कटे है?” “ओह, मेरी शादी नहीं हुई है अभी!” मैं समझ गया गया था कि बिना परिवार के ये मकान नहीं देने वाली. “कांईं जात हो…?”
मैंने उसे बताया तो वो हंस पड़ी, मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर वो बिना कुछ कहे भीतर चली गई. मैं निराश हो कर आगे बढ़ गया.
लाऊड स्पीकर की तेज आवाज, भीड़ भाड़ में, महमानो के बीच में मैं अपने दोस्त करण को ढूंढ रहा था. सभी अपने कामों में मगन थे. एक तरफ़ खाना चल रहा था. आज मैंने होटल में खाना नहीं खाया था, करण के यहाँ पर खाना जो था. “शी… शी… ऐ…”
एक महिला घाघरे चूनर में अपने को घूंघट में छुपाये हुये मुझे हाथ हिला कर बुला रही थी. मैं असमन्जस में पड़ गया. फिर सोचा कि किसी ओर को बुला रही होगी. उसने अपना घूंघट का पल्लू थोड़ा सा ऊपर किया और फिर से मुझे बुलाया. मैंने इशारे से कहा- क्या मुझे बुला रही है? “आप अटे कई कर रिया हो?” “आप मुझे जानती हो?” “हीः… कई बाबू जी, मन्ने नहीं पहचानो? अरे मूं तो वई हूँ हवेली वाली, अरे वो पीपल का पेड़…” “ओह, हाँ… हा… बड़ी सुन्दर लग रही हो इस कपड़ों में तो…” “अरे बहू, काई करे है रे, चाल काम कर वटे, गैर मर्दां के साथ वाता करे है.” “अरे बाप रे… मेरी सास.” और वो मेरे पास से भाग गई. मैं भोजन आदि से निवृत हो कर जाने को ही था की दरवाजे पर ही वो फिर मिल गई. मुझे उसने मेरी बांह पकड़ कर एक तरफ़ खींच लिया. “अब क्या है?” मैं खीज उठा. “म्हारे को भूल पड़ गई, म्हारे घर माईने ही कल सवेरे कमरो खाली हो गयो है… आप सवेरे जरूर पधारना!”
मैंने खुशी के मारे उसका हाथ जोर से दबा दिया. “शुक्रिया… आपका नाम क्या है?” “थाने नाम कांई करनो है… छबीली नाम है म्हारो, ओर थारा?” “नाम से क्या करना है… वैसे मेरा नाम छैल बिहारी है!” मैंने उसी की टोन में कहा. “ओये होये… छैलू… हीः हीः!” हंसते हुये वो आँखों से ओझल हो गई. मेरी आँखें उसे भीड़ में ढूंढती रह गई.
मैं सवेरे ही छबीली के यहाँ पहुँच गया. मैंने घण्टी बजाई तो एक चटख मटक लड़की ने दरवाजा खोला. टाईट जींस और टी शर्ट पहने वो लड़की बला की सेक्सी लग रही थी. खुले बालों की मुझे एक महक सी आई. “जी वो… मुझे छबीली से मिलना है…” “माईने पधारो सा…” उसकी मीठी सी मुस्कान से मैं घायल सा हो गया. “जी वो मुझे कमरा देखना है…” “थां कि जाने कई आदत है, अतरी बार तो मिल्यो है… पिछाणे भी को नी…?” “ओह क्या? आप ही छबीली हैं…?”
वो जोर से हंस दी. मैं अंसमजंस में बगले झांकने लगा. कमरा बड़ा था, सभी कुछ अच्छा था… और सबसे अच्छा तो छबीली का साथ था. मैं कमरे से अधिक उसे देख रहा था. वो फिर आँखें मटकाते हुये बोली- ओऐ, कमरा देखो कि मन्ने…?” फिर खिलखिला कर हंस दी.
मैं उसी शाम को अपने कमरे में सामान वगैरह ले आया. वो मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी. इस बार वो सलवार-कुर्ता पहने हुई थी. “घर के और सदस्य कहाँ हैं?” यह कहानी आप अन्तर्वासना.कॉंम पर पढ़ रहे हैं. “वो… वो तो राते आवै है… कोई आठ बजे, बाकी तो साथ को नी रेहवै…” “मतलब…?” “म्हारे इनके हिस्से के पांती आयो है… सो अठै ही एकलो रहवा करे!” मैं अपने बिस्तर पर आराम कर ही रहा था कि मुझे छबीली की चीख सुनाई दी. मैं तेजी से उठ कर वहा पहुँचा. वो पानी से फिसल गई थी और वहीं गिरी पड़ी थी.
मैंने तुरन्त उसे अपनी बाहों में उठा लिया और उसके बेडरूम में ले आया. उसके पांव में चोट लगी थी. उसने अपने खूबसूरत पैरों पर से सलवार ऊपर कर दी. लगी नहीं थी, बस वहाँ सूजन आ गई थी. मैंने बाम लाकर उसके पैरों पर मलना आरम्भ कर दिया. मेरे हाथ लगाते ही वो सिहर उठी. मुझे उसकी सिरहन का अहसास हो गया था. मैंने जान कर के अपना हाथ थोड़ा सा उसकी जांघों की तरफ़ सहला दिया. उसने जल्दी से सलवार नीचे दी और मुझे निहारने लगी. फिर वो शरमा गई.
“ऐ… यो काई करो… मन्ने तो गुदगुदी होवै!” वो शरमा कर उठ गई और अपना मुख हाथों से ढांप लिया.
मुझे स्वयं ही उसकी इस हरकत पर आनन्द आ गया. एक जवान खूबसूरत लड़की की जांघों को सहलाना… हाय, मेरी किस्मत… “छबीली, तुम्हें पता है कि तुम कितनी सुन्दर हो?” “छैल जी, यूं तो मती बोलो, मन्ने कुछ कुछ होवै है.” “सच, आपका बदन कैसा चिकना है… हाथ लगाने का जी करता है!”
उसकी बड़ी बड़ी आँखें मेरी तरफ़ उठ गई. उनमे अब प्रेम नजर आ रहा था. उसके हाथ अनायास ही मेरी तरफ़ बढ़ गये. “मन्ने तो आप कोई जादूगर लगे हो… फिर से कहो तो…” “आपका जिस्म जैसे तराशा हुआ है… कोई कलाकर की कृति हो, ईश्वर ने तुम्हें लाखो में एक बनाया है!” “हाय छैलू! इक दाण फ़ेर कहो, म्हारे सीने में गुदगुदी होवै है.”
वो जैसे मन्त्र मुग्ध सी मेरी तरफ़ झुकने लगी. मैंने उसकी इस कमजोरी का फ़ायदा उठाया और मैं भी उसके चेहरे की तरफ़ झुक गया. कुछ ही देर में वो मेरी बाहों में थी. वो मुझे बेतहाशा चूमने लगी थी. उसका इतनी जल्दी मेरी झोली में गिर जाना मेरी समझ में नहीं आया था.
मैं तुरन्त आगे बढ़ चला… धीरे से उसके स्तनों को थाम लिया. उसने बड़ी बड़ी आँखों से मुझे देखा और मेरा हाथ अपने सीने से झटक दिया. मुझे मुस्करा कर देखा और अपने कमरे की ओर भाग गई. उसकी इस अदा पर मेरा दिल जैसे लहूलुहान हो गया.
उसके पति शाम को मेरे से मिले, फिर स्नान आदि से निवृत हो कर दारू पीने बैठ गये. लगभग ग्यारह बज रहे थे. मैं अपनी मात्र एक चड्डी में सोने की तैयारी कर रहा था. तभी दोनों मियाँ बीवी के झगड़े की आवाजें आने लगी. मियाँ बीवी के झगड़े तो एक साधारण सी बात थी सो मैंने बत्ती बंद की और लेट गया.
अचानक मेरे कमरे की बत्ती जल गई. मैं हड़बड़ा गया… मैं तो मात्र एक छोटी सी चड्डी में लेटा हुआ था.
कहानी जारी रहेगी. प्रेम सिह सिसोदिया
कहानी का अगला भाग : छैल छबीली-2
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