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लेखिका : कामिनी सक्सेना
“विवेक… तुम मुझे प्यार करते हो?”
“नहीं… बिलकुल नहीं… तुम मुझे अच्छी लगती हो बस…”
“कितने कठोर हो… फिर रात को यहाँ क्यों आये हो?”
“तुममें एक कशिश है… तुम्हारा शरीर बहुत सेक्सी है… कुछ करने को मन करता है…”
“तुम भी मुझे बहुत सेक्सी लगते हो विवेक… मैंने आज तक किसी मर्द के साथ दोस्ती नहीं की है… तुम पहले मर्द हो… तुम बहुत अच्छे लगते हो…”
उसके पेट पर हाथ फ़ेरते हुये मेरा हाथ उसके लण्ड से टकरा गया।
हाय राम ! इतना कड़क… इतना बड़ा… देखा था उससे भी बड़ा?
मैंने जल्दी से अपना हाथ हटा दिया और दूसरी तरफ़ करवट पर लेट गई। विवेक ने पीछे से अपने हाथ का घेरा मेरी कमर पर डाल दिया और मेरी पीठ को अपने पेट से सटा लिया।
“विवेक, तुमने अन्दर कुछ नहीं पहना है क्या?”
“तो तुमने कौन सा पहन रखा है?”
मेरे कूल्हों की गोलाइयाँ उसकी जांघों से चिपक सी गई थी। मेरे चूतड़ों के मध्य दरार में उसका लण्ड सट गया था।
“तुम साथ हो कामिनी… कितना मधुर पल हैं ये…”
“तुम्हारे अंग कितने कठोर है विवेक… कितनी कड़ाई से अपनी उपस्थिति दर्शा रहे हैं। मुझे तो नशा सा आ रहा है।”
उसका लण्ड अब और कठोर हो कर मेरी दरार को चीरने की कोशिश कर रहा था। मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा था। मैंने अपना हाथ बढ़ा कर उसके सुडौल कूल्हों पर रख दिया और अपनी ओर धीरे से खींचने लगी। उफ़्फ़ ! राम रे… उसका लण्ड मेरी गाण्ड के छेद पर गुद्गुदी करने लगा। पता नहीं उसने कब अपना पायजामा नीचे सरका दिया था। मेरी काली शमीज उसने धीरे से ऊपर कर दी थी। मुझे लगा मेरी गाण्ड के छेद पर उसका नंगा लण्ड का सुपारा रगड़ खा रहा था।
“ओह्ह नहीं ! ये सब कब हो गया?’
उसका दूसरा हाथ मेरी छाती से लिपटा हुआ था। मैं कठोरता के साथ उसके बदन से चिपकी हुई थी।
ओह्ह्ह… ये क्या… मुझे लगा उसका सुपारा मेरी गाण्ड के छेद को चौड़ा कर रहा है… मुझे एक तरावट सी आई…
“विवेक… तुम क्या कर रहे हो?”
“कुछ नहीं… बस नीचे से वो ही जोर लगा रहा है… उसने अपना जोड़ीदार ढूंढ लिया है…”
“उह्ह्ह्ह… बहुत तेज गुदगुदी उठ रही है…”
तभी मुझे लगा कि मेरी गाण्ड का छेद फ़ैलता ही जा रहा है… उसका लण्ड अन्दर प्रवेश की अनुमति बस चाहता ही है… मैंने मस्ती में आकर अपनी गाण्ड का छेद ढीला छोड़ दिया… मां री… उसका लण्ड तो फ़क से घुस गया।
“इह्ह्ह्ह… मर गई मैं तो… उस्स्स्स्स्स…।”
मुझे एक सहनीय… आनन्द सा उभर आया… विवेक का जो हाथ मेरी छाती से कसा हुआ था वो एकाएक मेरी चूचियों पर आ टिका। मैंने एक अंगड़ाई सी ली और अपने शरीर का भार विवेक पर डाल दिया…
“ये क्या कर डाला मेरे जानू…?”
उसका लण्ड और मेरी गाण्ड में अन्दर सरक आया।
“ये… उह्ह्ह्ह… जालिम… बहुत कड़ाई से पेश आ रहा है… कितनी गुदगुदी चल रही है…”
मेरी चूचियाँ वो मसलने लगा… चूत में बला की तरावट आ गई थी… विवेक ने मेरे गालों को चूम लिया… मेरी चूत को वो गुदगुदाने लगा… वो लण्ड भीतर गहराई में उतारता भी जा रहा था और मेरी चूत को जोर जोर से सहला भी रहा था। दाने पर उसकी अंगुलियाँ गोल गोल घूम कर मुझे विशेष मस्ती दे रही थी। बहुत आराम के साथ वो मेरी गाण्ड मार रहा था… मेरा अंग अंग उसके हाथों से मसला जा रहा था। मुझे अब लग रहा था कि मुझे चूत में उसका मुस्टण्डा लण्ड अन्दर तक चाहिये। पर कैसे कहती…
मैं बल खाकर सीधी हो गई। उसका लण्ड गाण्ड से बाहर निकल आया।
“उफ़्फ़ विवेक… तुम कितने अच्छे हो… जान निकाल दी मेरी…”
विवेक ने धीरे से अपनी एक टांग मेरी कमर पर रख दी और जैसे उसे कस कर मेरी कमर से जकड़ लिया। फिर वो सरक कर मेरे ऊपर आ गया। उसने मेरी चूचियाँ कठोरता से थाम ली। तभी मुझे अपनी चूत पर उसका सख्त लण्ड महसूस हुआ।
“ओह्ह… मेरे जानू… जरा प्यार से…”
उसका सुपारा मेरी चूत में घुसने कोशिश करने लगा। विवेक के चेहरे पर कठोरता सी झलक आई। उसने अपने दोनों हाथों पर अपना वजन उठा लिया और कमर से थोड़ा सा ऊपर उठ गया। उसका लण्ड लोहे की छड़ जैसा तना हुआ चूत के ऊपर धार पर रखा हुआ था।
उसने जोर लगाया… वो डण्डा चूत में घुसता चला गया…। कितना गरम लण्ड था… तभी मुझे तेज जलन सी हुई…
“अरे जरा धीरे से… लग रही है…”
उसने लण्ड जरा सा पीछे खींचा और आहिस्ते से वापिस अन्दर घुसाने लगा…
“उफ़्फ़… क्या फ़ाड़ डालोगे… दुखता है ना।”
“बस हो गया रानी…”
वो जोर लगाता ही चला गया… मेरी तो दर्द के मारे आँखें ही फ़टने लगी…
“बस थोड़ा सा ओर… बस हो गया…”
मेरे मुख पर हाथ रख कर उसने अन्तत: एक जोर से शॉट मार ही दिया। मेरी चीख मुख में ही दब सी गई… विवेक अब धीरे से मुझ पर लेट गया।
“चीख निकल जाती तो… मर ही जाते… ! और वो परदा… गया काम से… !”
“जब जानती हो तो अब कोई तकलीफ़ नहीं है…”
मेरा दर्द शनै: शनै: कम होता जा रहा था। वो अपना लण्ड अब धीरे धीरे से चलाने लग गया था। मुझे भी अब भीतर से गुदगुदी उठने लगी थी। उसने एक बार लण्ड बाहर निकाला और गिलास के पानी से रुमाल भिगोया और पूरी चूत का खून साफ़ कर दिया। उसने जब फिर से लण्ड घुसेड़ा तो एक मीठी सी गुदगुदी उठने लगी। मेरी चूत तो अपने आप ही चलने लगी… तज तेज… और तेज… फिर लय में एक समां बन्ध गया। उसने खूब चोदा मुझे… एकाएक उसकी तेजी बढ़ सी गई। उसने अपना लण्ड बाहर निकाला और जोर की एक पिचकारी छोड़ दी… उसने मेरा चेहरा वीर्य से भर दिया… मेरी चूचियाँ गीली हो गई चिपचिपी सी हो गई… फिर बचा-खुचा वीर्य उसने मेरी चूत पर गिरा कर उसे मेरी चूत पर लिपटा दिया।
“छी: ! यह क्या कर रहे हो… घिन नहीं आती तुम्हें?”
“यही तो झड़ने का मजा है…। नहा लेना इसमें ! क्या है?”
“अरे मैं तो जाने कितनी बार झड़ गई… बस करो अब…”
मैंने पहली बार यह सब किया था सो मुझे ये सब करने के बाद नींद आ गई। फिर अचानक रात को ना जाने कब विवेक मुझे फिर से चोद रहा था। पहले तो मुझे दर्द सा हुआ… फिर मुझे भी तेज चुदने की लग गई। उस रात हमने तीन बार चुदाई की। सवेरे होते होते वो चला गया था। मैंने दूसरी चादर बदल ली थी। फिर तो मुझे ऐसी नींद आई कि स्कूल के समय में भी मेरी नींद नहीं खुली। मम्मी पापा ने जानकर नहीं जगाया। उस दिन मुझे छुट्टी लेनी पड़ी।
रात होते होते मन फिर से जलने लगा… विवेक का लण्ड मुझे नजर आने लगा… चूत में, चूचियों में दर्द तो था ही… पर चूत की ज्वाला कैसे रोकती, वो तो भड़कने लगी थी। रात आई… फिर वही जबरदस्त चुदाई… पर इस बार वो रात के एक बजे चला गया था। खूब चुद कर मैं सो गई… पर सवेरे मेरी नींद समय पर खुल गई। मैंने फिर से बस में जाना शुरू कर दिया। दिन भर मैं विवेक से दूर रहती… और रात को मैं उससे खूब चुदवाती। तीन दिन बाद ही रजनी अपने माँ के यहाँ से वापस आ गई थी।
अब मुझे कौन चोदता? रात बड़ी लगने लगी… चूत में आग भरने लग जाती… दिल तड़पने लगता… फिर पेन या पेन्सिल… बैंगन… मोमबती… उफ़्फ़ क्या क्या काम लाती… लण्ड जैसा तो कुछ भी नहीं है… मुझे तो विवेक की बहुत याद आती थी। पर मन मार कर रह जाती… जाने कब मौका मिलेगा।
पर मेरी माँ कितनी खराब है… आप देखिये ना… मेरी शादी ही नहीं कराती है… प्लीज आप ही उन्हे कह दीजिये ना… अब नहीं रहा जाता है।
उफ़्फ़्फ़… क्या करूँ?
कामिनी सक्सेना
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