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वसुन्धरा की मां ने अभी-अभी वसुन्धरा को फोन लगा कर आपके यहां होने की खबर दी तो वसुन्धरा ने कहा है कि वो कल सवेरे 12 बजे तक यहां पहुँच जायेगी. आपके लिए वसुन्धरा का संदेसा है कि आप हरगिज़ भी उससे मिले बिना ना जाएँ. इतना सुनकर मेरे पेट में तितलियाँ सी उड़ने लगी. साल पहले की वसुन्धरा की पिंक चोली और पिंक पेंटी में मेरी ओर चली आने वाली क़ामायनी छवि मेरी आँखों के सामने मूर्त हो उठी.
वो रात मुझ पर बहुत भारी गुज़री. बहुत देर तक पुरानी यादें बड़ी शिद्दत से मेरे ज़ेहन में मंडराती रही. बहुत रात गए मुझे नींद आयी.
अगले दिन हमें मिनिस्ट्री में अनुमान से ज्यादा ही टाइम लग गया. करीब साढ़े तीन बजे थे जब हम दोनों फ़ारिग हो कर वापिस घर पहुंचे. सुबह से ही आसमान में काली घटाओं का आना-जाना लगा हुआ था और तेज़ हवाओं के कारण धूप-छाँव की आँख-मिचौली जारी थी. लगता था कि एक-आध रोज़ में बारिश होगी.
जैसे ही पोर्च में कार घुसी, सामने सीढ़ियों पर वसुन्धरा खड़ी थी. एक पल को तो मेरे दिल की धड़कन जैसे थम सी ही गयी. दुल्हन के जैसी सजी हुयी तो नहीं लेकिन पहले के जैसी किसी बोरिंग और सड़ियल नन के रूप में भी नहीं थी.
पिछले साल की बनिस्पत वसुन्धरा ने कोई छह-सात किलों वज़न कम कर लिया था लिहाज़ा उसके चेहरे के तमाम नैन-नक्श … ख़ासकर उसकी सुतवां नाक और होंठ ज्यादा कातिल दिख रहे थे. उस के बदन की तमाम गोलाइयाँ, गहराइयाँ और ऊंचाइयां पहले के मुकाबिले कहीं ज़्यादा शिद्दत से उजाग़र हो रहीं थीं. कमर का पहले से ज्यादा गहरा ख़म तो सरासर क़ातिल दिख रहा था. वही सरु सा ऊँचा कद, वही कमान सा तना हुआ सुडौल गोरा बदन, वही रौशन पेशानी, माथे पर हवा में कुछ-कुछ उड़ती ज़ुल्फ़ें, तीखा सुतवां नाक, सुडौल गुलाब सी कलियों से होठों का अर्ध-चन्द्रात्मक ख़म, नाभि से ज़रा नीचे बंधी शिफ़ौन की प्लेन महरून साड़ी में से पारे की तरह थिरकती लम्बी पुष्ट जाँघें.
मैं अपने तस्सुवर में वसुन्धरा के नंगे जिस्म की कल्पना करने लगा. अपने दोनों हाथों को अपने सीने पर क्रास बांधे हुए, काली कजरारी आँखों में सैंकड़ों सलाम और सवाल लिए वसुन्धरा की वही अदा. कहीं कोई रत्ती भर भी फर्क नहीं. या तो समय रुक गया था या एक ही पल में सदियाँ गुज़र गयीं. लगा … जैसे अभी कल की ही तो बात है, जुदा हुये. एक आह सी मेरे दिल से निकल गयी. पोर्च में वसुन्धरा के पापा ने कार रोक कर मुझे उतारा और खुद कार गैरेज़ में पार्क करने के लिए आगे बढ़ा ले गए. जैसे ही मैं कार से उतरा तत्काल ही वसुन्धरा सीढ़ियों से नीचे उतर कर बिल्कुल मेरे पास आ गयी.
“वसुन्धरा जी … नमस्कार!” मैंने अपने दोनों हाथ वसुन्धरा की ओर जोड़े. वसुन्धरा ने बिना कुछ बोले आगे बढ़ कर मेरे दोनों हाथ थाम लिए और सर उठा कर तरसी आँखों में हज़ारों शिकायतों का भाव लेकर मेरी ओर निहारा. एक सिहरन की लहर मेरे तन-बदन से गुज़र गयी. मैंने फ़ौरन अपना बायां हाथ उसके दोनों हाथों में से निकाल कर उसके दायें हाथ के पृष्ठ भाग पर जमा दिया और अपने दायें हाथ की चारों उंगलियां वसुन्धरा के दायें हाथ की उँगलियों में पिरो दी. अब सिहरने की बारी वसुन्धरा की थी. “एक साल बाद हाल पूछ रहे हैं आप!” “आप मिली ही साल बाद हैं.” “फ़ोन कर सकते थे?” “आपने अपना नंबर देने लायक ही नहीं समझा हमें … फोन कहाँ करते?”
वसुन्धरा ने एक तिरछी नज़र से अपने पापा की ओर देख कर … जोकि गैरेज में कार पार्क कर रहे थे अभी … अपनी पेशानी पर सिलवट डाल कर मेरी तरफ़ फ़र्ज़ी गुस्से से आँख तरेरी और अपने हाथ मेरे हाथों से छुड़वा लिए. “अजी छोड़िये! ढूंढने वाले तो भगवान ढूंढ लेते हैं.” “जी … जी! ढूंढ ही तो लिया है.”
अब वसुन्धरा लाज़वाब थी. तभी उसके पापा यह कहते हुए घर के अंदर जा घुसे- चलो चलो! अंदर चलो यार! बहुत भूख लगी है. वसुन्धरा आगे-आगे और मैं पीछे पीछे डाइनिंग हाल में जा कर डाइनिंग टेबल पर जा बैठे.
खाना खाते वक़्त वसुन्धरा ने मुझसे मेरा अगला प्रोग्राम पूछा. मैंने तो घर के लिए वापिस निकलना था लेकिन अभी तो वसुन्धरा से अलैक-सलैक ही हुई थी, कोई ढ़ंग की बात तो हुई ही नहीं थी. “जैसा आप कहें!” मैंने वसुन्धरा का मन टटोला. “अगर आप को दिक्कत न हो तो मैं आपके साथ ही चलती हूँ. आप मुझे धर्मपुर उतार दीजियेगा, वहां से मैं डगशाई चली जाउंगी और आप आगे अपने शहर चले जाना.”
“कोई दिक़्क़त नहीं लेकिन आप आज ही वापिस क्यों जाना चाहती है?” मैंने मन ही मन हिसाब लगाया कि वसुन्धरा का मुझे लगभग डेढ़-पौने दो घंटे का साथ और मिल सकता है. “यहां मेरे लिए रखा ही क्या है?” वसुन्धरा के मन में अपने पिता के लिए बहुत कड़वाहट थी. मैंने चुप रहना ही श्रेष्यकर समझा.
ख़ैर! खाना-वाना खाकर करीब साढ़े चार बजे हम लोगों ने शिमला छोड़ दिया. चलने से पहले मैंने वसुन्धरा के पापा को आश्वस्त कर दिया कि मैं रास्ते में वसुन्धरा को शादी वाले मुद्दे पर समझाने और मनाने की पूरी कोशिश करूंगा.
बाहर मौसम और अधिक रौद्र रूप इख्तियार कर चुका था, आसमान पर काले बादलों की सेना ने आसमान में धीरे-धीरे स्थायी किलेबंदी कर ली थी, लगता था कि आज शाम ही बारिश आएगी. मैं धीरे-धीरे ड्राइव करता हुआ शहर से बाहर निकल कर हाईवे पर आ गया. अभी तक न तो वसुन्धरा कुछ बोली थी न मैं. हम दोनों की नज़र बार-बार इक-दूजे की ओर उठती, नज़र से नज़र मिलती, दोनों के होंठों पर एक मुस्कान आ कर लुप्त हो जाती और बस … एक अज़ब सी बेखुदी की कैफ़ियत तारी थी दोनों पर.
“वसुन्धरा जी!” आँखिर मैं मर्द था, मैंने पहल की. “जी!” “कुछ बात कीजिये … कुछ अपनी कहिये, कुछ हमारी सुनिए. नहीं तो धर्मपुर तो ऐसे भी आ ही जायेगा. फिर मैं कहाँ … आप कहाँ! पता नहीं जिंदगी में हम कभी दोबारा मिलें … न मिलें.” लफ्ज़ सीधे मेरे दिल से निकल रहे थे. “आप ऐसे ना कहें … प्लीज़!” वसुन्धरा जैसे सिसक सी उठी. “क्या मैं ऐसे न कहूं?” “दोबारा न मिलने वाली बात. हम मिलेंगे … जरूर मिलेंगे. ” अचानक ही वसुन्धरा की कजरारी आँखों में नमी सी छलक उठी थी.
“वसुन्धरा जी! आप जानती हैं न कि फ़र्ज़ की वेदी पर ख्वाहिशों की बलि चढ़ना-चढ़ाना, इस दुनिया का दस्तूर है.” मैंने इशारों में वसुन्धरा को चेताया. “जी! मुझे पता है लेकिन अपना आबाद होना या फना होना … ये तो खुद के इख्तियार में ही है और सपने देखने पर तो कोई पाबंदी नहीं.” “और सपना क्या है?” “ये जो आप मेरे पास हैं … मेरे साथ हैं, यही तो सपना है.”
“अच्छा एक बात बताइये! आप आती दफ़ा न तो अपना कोई कांटेक्ट नंबर हमें दे कर आयी, न हमारा कोई कांटेक्ट नंबर ले कर आयी … ऐसा क्यों?” “अभी-अभी आप ही ने कहा न कि फ़र्ज़ की वेदी पर ख्वाहिशों की बलि चढ़ना-चढ़ाना, इस दुनिया का दस्तूर है. बस! वही दस्तूर निभाया मैंने. ” बाबा रे बाबा! बातचीत बहुत ही गलत रुख इख्तियार करती जा रही थी.
मैंने पलभर के लिए सड़क पर से निगाह हटा कर वसुन्धरा की ओर निहारा. वसुन्धरा ने मेरी ओर ही देख रही थी. नज़र से नज़र मिली. जाने क्या भाव था वसुन्धरा की आँखों में … आत्मसम्मान या नित्य जलती रहने वाली शमा की लौ का तेज़ या आत्मबलिदान देने वाले की नेकी का रौशन अन्तर्मन … पता नहीं.
वसुन्धरा की नज़र मेरे अंतर में कहीं गहरे उतर गयी. तभी बहुत ज़ोर से बिजली चमकी और धड़धड़ा कर बादल गरजे. अगले ही क्षण मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी. बाहर वातावरण में घटाटोप अँधेरा छा गया था. अभी शाम के साढ़े पांच ही बजे थे लेकिन ऐसा लग रहा था कि जैसे रात के दस बजे हों. घने अँधेरे में, मूसलाधार बारिश में पहाड़ी सड़क पर ड्राइव करना कितना ख़तरनाक हो सकता है, यह तो वही जानता है जो कभी ऐसी हालत में फंसा हो, ज़रा सी असावधानी और सब ख़त्म. धर्मपुर अभी भी लगभग 30 किलोमीटर दूर था.
“वसुन्धरा जी! मैं आप से कुछ कहना चाहता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी बात पर गौर जरूर करेंगी.” वसुन्धरा की सवालिया निगाहें मेरी ओर उठी. “वसुन्धरा जी! जिंदगी में एक्सीडेंट्स भी हो जाते हैं कभी लेकिन जिंदगी तो चलती ही रहती है. हाँ कि ना?” “कहते जाइये, मैं सुन रही हूँ.”
“गिरने में कोई बुराई नहीं, बुराई … गिर कर उठने से इंकार करने में है. एक नयी शुरुआत न करने में है.” “तो …” वाइस-प्रिंसिपल साहिबा धीरे-धीरे चैतन्य हो रही थी. “आप एक नयी शुरुआत कीजिये न.” ” मैं जानती हूँ … अब की बार पापा ने आपको मोहरा बनाया है.” “मोहरे जैसी कोई बात नहीं वसुन्धरा जी! सभी, आप के मम्मी-पापा और मैं भी, मैं खुद भी चाहता हूँ कि आप एक खुशहाल और भरी-पूरी जिंदगी जियें.”
“राज! मेरे ख्याल से आपको सारी बात नहीं पता.” वसुन्धरा के मुँह पर मेरा नाम पहली बार आया था, वो भी ‘मिस्टर’ या ‘जी’ जैसे किसी अलंकार के बिना.
इससे पहले कि मैं कुछ कहता कि अचानक कार बायीं ओर रपटने लगी. मैंने ब्रेक-पैडल पर लगभग ख़ड़े ही होकर जैसे-तैसे कार संभाली. झमाझम बारिश में, कार से उतर कर देखा तो पाया कि पैसेंजर-साईड का अगला टायर पंक्चर हुआ था. बारिश में ही जैसे-तैसे टायर बदला लेकिन इस सारी कार्यवाही में तक़रीबन चालीस-पैंतालीस मिनट लग गए.
सर से पांव तक भीगा हुआ मैं, कार चला कर वसुन्धरा को साथ लिए भरी बरसात में साढ़े सात बजे के लगभग धर्मपुर पहुंचा तो ऐसा लग रहा था कि जैसे हम किसी भूतिया नगर में पहुंच गए हों. सारे शहर की बिजली गुल, सड़क पर कोई बंदा न बन्दे की ज़ात. न कोई बस, न कोई टैक्सी. ऊपर से खराब मौसम और रात सर पर खड़ी.
ऐसे में अकेली वसुन्धरा को धर्मपुर उतारने को मेरा मन नहीं माना. वैसे डगशाई वहाँ से सात-आठ किलोमीटर ही दूर था. जहां सत्यानाश … वहां सवा-सत्यानाश. मैंने तत्काल फैसला ले लिया. जैसे ही मैंने कार डगशाई की ओर मोड़ी तो वसुन्धरा चौंकी. “इधर किधर?” “आपको आप की मंज़िल तक पहुँचाना नहीं क्या?” मैंने थोड़ा हंस कर कहा, हालांकि ठण्ड से मेरी कुल्फी जमे जा रही थी. “मेरी मंज़िल तो मेरे पास है लेकिन मेरी किस्मत में नहीं.” “क्या मतलब?” मैं चौंका.
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