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कार में वसुन्धरा ने मुझसे कोई बात नहीं की अपितु सारे रास्ते वसुन्धरा अधमुंदी आँखों के साथ मंद-मंद मुस्कुराती रही, शायद उन लम्हों को मन ही मन दोहरा रही थी. वसुन्धरा के रुख पर रह-रह कर शर्म की लाली साफ़-साफ़ झलक रही थी. वसुन्धरा की आँखें बार-बार झुकी जा रही थी, होठों पर हल्की सी मुस्कान आ गयी थी और माथे पर लिखा 111 कब का विदा ले चुका था, आवाज़ में से तल्ख़ी गायब हो चुकी थी और उस के हाव-भाव में आक्रमकता की बजाये एक शालीनता सी आ गयी थी. इस आधे-पौने घंटे ने वसुन्धरा के व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया था, एक स्त्री को स्त्री वाला अंतर्मन दे दिया था.
होटल की पार्किंग में कार लगाते हुए वसुन्धरा मुझ से मुख़ातिब हुई. “सुनिए! प्लीज़ आप …” “कुछ मत कहिये वसुन्धरा जी! ये एक सपना था और सपनों को सिर्फ याद किया जाता है, आलम में जिक्र कर-कर के उनको रुसवा नहीं किया जाता.” इस से पहले वसुन्धरा कुछ और कहती, मैंने वसुन्धरा के दिल की बात बूझ कर पहले ही उसको मुतमईन कर दिया.
“और वसुन्धरा जी! आप भी ध्यान रखना प्लीज़! हम घर नहीं गए, कोई कारण ही नहीं था घर जाने का. हम ब्यूटी-पॉर्लर से सीधे शादी वाले होटल में आएं हैं, इसीलिये आपके पुराने पहने हुए कपड़ों वाला अटैची कार में हमारे साथ ही होटल आ गया है.” वसुन्धरा को अब समझ आया कि क्यों मैं उसके पुराने पहने हुए कपड़ों वाला अटैची कार में रखकर साथ ही होटल ले आया हूँ. “थैंक यू!”
मैंने वसुन्धरा की ओर देखा. होंठों से वो सिर्फ धन्यवाद कह रही थी लेकिन उसकी आँखों में तो जैसे भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था.
बाद का किस्सा-ऐ-मुख़्तसर तो यह रहा कि प्रिया की शादी बहुत धूमधाम से हुई और शादी के बाकी के समारोह में वसुन्धरा का सब के साथ व्यवहार आश्चर्यजनक रूप से शालीन और मधुर रहा. शादी के समारोहों में यदा-कदा मैं वसुन्धरा की ओर देखता तो उसको अपनी ही ओर निहारते पाता. ज्वालामुखी के अंदर ज़बरदस्त हलचल जारी थी. प्रिया की विदाई मेरे ही घर से हुई. तारों की छाँव में विदा होते वक़्त प्रिया मेरे भी गले लग कर रोई, हालांकि विदाई के इतने ज़ज़्बाती लम्हे में भी मुझसे सट कर रोते वक़्त प्रिया भारी चुनरी की ओट में मुसलसल अपने बाएं हाथ से मेरे लिंग को पतलून के ऊपर से सहलाती रही … सहलाती क्या रही, लिंग पर मुट्ठियाँ सी भरती रही. शायद वो मेरा प्रिया से आखिरी अंतिम स्पर्श था.
प्रिया की विदाई के कुछ घंटे बाद प्रिया के मम्मी-पापा, वसुन्धरा और उस का परिवार भी अपने-अपने घर के लिए विदा हो गए पर एक बात क़ाबिल-ऐ-ग़ौर थी. वसुन्धरा ने ना तो हमारे फ़ोन नंबर लिए, न अपने कॉन्टेक्ट नम्बर दिए. हाँ! इतना ज़रूर था कि हम लोगों से विदा लेकर कार में बैठते वक़्त वसुन्धरा की आँखें भी भरी-भरी सी थी. फ़क़त दो दिन पहले वसुन्धरा और आंसू … जैसी कल्पना करना भी मुहाल था. किससे बिछुड़ने के ग़म में वसुन्धरा की आँख भर आयी थी? क्या मुझ से? क्यों नहीं … यकीनन! मुझसे बिछुड़ने के कारण ही ऐसा था.
चहल-पहल से भरा-पूरा एक घर महज़ चंद घंटों में ही खाली-खाली सा लगने लगा. लेकिन यही जिंदगी की रीत है. समय का पहिया तो अनवरत गतिमान रहता है. रात आयी, दिन चढ़ा, दिन ढला, फिर रात आयी. प्रिया की शादी के बहुत दिन बाद तक मैं अनमना सा रहा लेकिन धीरे-धीरे हमारी जिंदगी भी अपने ढर्रे पर वापिस लौट आयी. दिन हफ़्तों में और हफ्ते महीनों में बदलते चले गए. कालांतर में प्रिया भी अपने पति के पास आस्ट्रेलिया चली गयी. कभी-कभार आस्ट्रेलिया से प्रिया का फ़ोन आ जाता तो “हैलो-हाय, क्या हाल है, कैसी हो, खुश तो हो?” जैसी रस्मी सी बातचीत भी हो जाती थी. प्रिया की बातों से लगता था कि वो अपने पति के साथ खुश है.
इक अनजानी सी ईर्ष्या की भावना दिल में सर उठाती तो थी लेकिन मैं दुनियादार आदमी था, सब ऊंच-नीच समझता था. मेरा खुद का एक परिवार था, बीवी थी, बच्चे थे, समाज में मेरा एक मुकाम था और प्यार के नाम पर इन सब को दांव पर नहीं लगाया जा सकता था. और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मैं खुद ही ऐसा करना नहीं चाहता था. तो … ‘जो मिला, वही ग़नीमत’ पर अमल कर उस ईर्ष्या की भावना को दिल ही में दफ़न कर देता था.
लेकिन एक बात थी, जिस दिन प्रिया का फ़ोन आता, उस रात मेरी कामुकता बिस्तर में वो कहर ढाती कि बेचारी सुधा दो-दो दिन ठीक से चल भी नहीं पाती. मेरे ख्याल से मेरी ऐसी बेलगाम कामुकता मेरे अवचेतन मन की अतृप्त और दबायी गयी ख़्वाहिश … प्रिया की ख़्वाहिश का ही नतीजा था.
कभी-कभार अनचेतन वसुन्धरा का ख्याल भी आ कर दिल पर दस्तक दे जाता ‘जाने कैसी होगी वो? शायद उस की शादी की कहीं कोई बातचीत चली हो. मुझे याद करती होगी या नहीं … करती तो होगी!’ ऐसे कितने ही विचार मन में आ विचरते. अखबार में कभी कहीं कोई शिमला की या डगशाई की कोई ख़बर होती तो मैं सारी ख़बर बहुत ध्यान से पढ़ता … जाने क्यों!
और फिर करीब एक साल बाद एक दिन: नवंबर महीने का दूसरा हफ्ता चल रहा था … दोपहर करीब बारह-सवा बारह का टाइम रहा होगा कि वसुन्धरा के पापा मेरे ऑफिस आये. उन्हें इस तरह अचानक आया देख कर मुझे फ़ौरन वसुन्धरा का ख़्याल आया. क्या जाने वसुन्धरा की कहीं शादी तय हो गयी हो और ये साहब उसी का न्यौता देने आयें हों.
लेकिन नहीं … बात व्यापारिक थी. हिमाचल में मिनिस्ट्री ऑफ़ एजुकेशन ने अपने बहुत सारे हाई-स्कूलों के लिए बहुत सारे कम्यूटर्स … बहुत सारे बोले तो कोई पांच सौ से कुछ ज्यादा ही कम्यूटर्स खरीदने का टेंडर निकाला था और टेंडर 28 नवंबर को खुलना था. अब कम्यूटर मेरी लाइन थी और वसुन्धरा के पापा अंदर के आदमी थे तो उन्हें मेरा ख़्याल आया, इसीलिए वो मेरे पास बिज़नेस ऑफर ले कर आये थे.
मिनिस्ट्री से सारी माथा-पच्ची वसुन्धरा के पापा ने करनी थी. इंस्टालेशन की और मिनिस्ट्री से पेमेंट लेने की सारी सिरदर्दी बड़े मियाँ की थी, मुझे कम्यूटर्स असैम्बल करवा के शिमला, सिर्फ वसुन्धरा के पापा तक पहुंचाने थे और मुझे मेरी सारी पेमेंट वसुन्धरा के पापा से मिलनी थी. ये सब कुछ 31 जनवरी से पहले-पहले ख़त्म करना था. हाँ! इस दौरान मुझे शिमला के दो एक चक्कर लगाने होंगें. पहले तो टेंडर अटेण्ड करने और नेगोटिएशन्स के लिए, फिर इक बार प्री-डिलीवरी इंस्पेक्शन के लिए आदि-आदि.
पांच सौ कम्यूटर्स! अगर मैं सब ख़र्चे निकाल कर पांच सौ रुपये प्रति कम्यूटर के हिसाब से भी अपना प्रॉफिट रखता तो फ़िगर ढाई लाख के पार जाती थी. न करने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन पाठकगण! मैं झूठ नहीं बोलूंगा कि हाँ करने के कई कारणों में से एक उम्मीद … चाहे बेजा ही थी, लेकिन वो यह थी कि शायद मेरी शिमला-फेरी के दौरान किसी रोज़ मेरी वसुन्धरा से मुलाकात हो जाए.
ख़ैर! वसुन्धरा के पापा मुझे 28 नवंबर को शिमला आने का न्यौता भिजवाने का कह कर ख़ुशी-ख़ुशी विदा हो गए.
टेंडर खुलना था 28 नवंबर, वीरवार शाम 4 बजे और उसके बाद एल-1 और एल-2 के साथ नेगोसिएशन. अगर टेंडर समय की पाबंदगी के साथ ठीक 4 बजे भी खुलता जो सरकारी दफ्तरों में कभी होती नहीं तो भी शाम 7-8 तो मुझे मिनिस्ट्री में ही बज जाने थे.
अब सर्दियों का मौसम में अँधेरी, ठंडी रात में पहाड़ी सड़क पर कार चला कर वापिस अपने शहर आना बहुत दुरूह कार्य था, लिहाज़ा! मुझे रात शिमला में ही ठहरने का इंतज़ाम करके जाना था. अगले ही दिन वसुन्धरा के पापा का फोन आ गया. चूंकि वही तो सारी योजना के कर्णधार थे और उन्हें सब पता था इसलिए उन्होंने इसरार किया कि रात मैं होटल में न रुक कर उनके घर में ही रुकूँ. यूं वीरवार को वसुन्धरा के शिमला वाले घर में होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण थी लेकिन फिर भी मैंने हामी भर दी.
खैर जी! मैं नियत दिन, नियत समय पर शिमला जा पहुंचा, टेंडर हमारे हक़ में ही खुला. वसुन्धरा के पापा और मेरी अंडर-सैकेट्री मिस्टर रावत के साथ मुलाक़ात बहुत ही बढ़िया रही. जो कि कालांतर में मेरे लिए बहुत प्रॉफिटेबल और परमानेंट बिज़नेस की आधारशिला बनी.
लेकिन दो-तीन मुद्दे रह गए थे जिन पर फैसला अगले दिन होना था लिहाज़ा हमें अगले दिन मिनिस्ट्री दोबारा जाना था. शाम करीब साढ़े-सात बजे मैं, वसुन्धरा के पापा के साथ उनके घर चला गया. घर जाकर पता चला कि वसुन्धरा नहीं आयी थी. कोफ़्त तो हुई लेकिन क्या किया जा सकता था!
अभी नवम्बर के आखिरी दिन चल रहे थे और मैदानों में तो इतनी सर्दी नहीं थी लेकिन शिमला में तो रातें ख़ासी ठंडी हो चली थी. फ़्रेश होकर साढ़े आठ बजे के आस-पास मैं और वसुन्धरा के पापा ड्रिंक्स लेने बैठ गए.
बातों-बातों में वसुन्धरा की और वसुन्धरा की शादी की बात चल निकली. “राज जी! सब मेरी गलती है जो मेरी बेटी मेरी आँखों के सामने तिल-तिल कर मर रही है. बहुत साल पहले एक बहुत अच्छा रिश्ता आया था वसुन्धरा के लिए और वसुन्धरा को लड़का पसंद भी था लेकिन मैं ही चूक गया. मुझ पर ही भूत सवार था किसी मिल्ट्री-ऑफिसर को दामाद बनाने का और मेरी इस बेकार की जिद ने सब गुड़-गोबर कर दिया. उस सब के बाद तो मुझ में और वसुन्धरा में इतना फ़ासला बढ़ गया है कि वसुन्धरा को मुझ से बात किये भी मुद्दत हो गयी है.”
यह उनका घरेलू मसला था, मैं इस में क्या कह सकता था सो! सिर्फ सुन रहा था.
“अभी पिछले महीने ही एक बहुत अच्छा रिश्ता आया है वसुन्धरा के लिए. लड़का फौज में मेजर है, बहुत ही शरीफ लोग हैं और ऊपर से अपनी ही जाति के हैं. वसुन्धरा और वो लड़का, दोनों साथ-साथ पढ़े भी हुए हैं लेकिन वसुन्धरा तो शादी वाली बात सुनने को भी तैयार नहीं!”
“राज जी! अगर आप चाहो तो हमारी मदद कर सकते हो.” “मैं! कैसे? ” थोड़ा जोर देने पर वसुन्धरा के पापा ने इसरारपूर्वक कहा कि अगर मैं, (मैं … बोले तो राजवीर!) वसुन्धरा से इस बारे में थोड़ा बात करे तो शायद वसुन्धरा मान जाए क्योंकि छोटे ने (प्रिया के पापा ने) बताया था कि प्रिया को शादी के लिए भी मैंने ही राजी किया था और ऊपर से वसुन्धरा मेरा मान करती है, ये उन सबने प्रिया की शादी में देख ही लिया था.
“बाप रे बाप! किस चक्रव्यूह में धकेल रहे थे बड़े मियाँ!” लेकिन अब तो न कहने की या पीछे हटने की स्टेज गुज़र चुकी थी तो मैंने एक कोशिश करने की हामी भर दी.
रात साढ़े दस बजे के आस-पास डिनर-टेबल पर वसुन्धरा के पापा ने बताया कि वसुन्धरा की मां ने अभी-अभी वसुन्धरा को फोन लगा कर आपके यहां होने की खबर दी तो वसुन्धरा ने कहा है कि वो कल सवेरे 12 बजे तक यहां पहुँच जायेगी. आपके लिए वसुन्धरा का संदेसा है कि आप हरगिज़ भी उससे मिले बिना ना जाएँ.
इतना सुनकर मेरे पेट में तितलियाँ सी उड़ने लगी. एक साल और आठ दिन हो चुके थे, वसुन्धरा को देखे. कैसी दिखती होगी वो? क्या मेरा सामना पुरानी सड़ियल, तल्ख़, कठोर वसुन्धरा से होने जा रहा था या फिर साक्षात रति-रूप, कामांगी वसुन्धरा मेरे रु-ब-रु होगी? साल पहले की वसुन्धरा की पिंक चोली और पिंक पेंटी में मेरी ओर चली आने वाली क़ामायनी छवि मेरी आँखों के सामने मूर्त हो उठी.
वो रात मुझ पर बहुत भारी गुज़री. बहुत देर तक पुरानी यादें बड़ी शिद्दत से मेरे ज़ेहन में मंडराती रही. बहुत रात गए मुझे नींद आयी. [email protected]
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